वह बावड़िया कलां की संकरी सड़क पर नवंबर की एक सुबह थी। यूं भी पक्षी प्रमियों के लिए सुबह कुछ खास होती है। पक्षियों को देखने के लिए दूर नहीं जाना पड़ता था। वे घर-आंगन में चहचहाते नजर आ जाते थे। चिड़िया का कलरव, उसका फूदकना, सूखी घांस अपनी चोंच में उठाने का उनका खेल, हमारी देशी चिड़िया के साथ अनाज की दावत उड़ाना। सबकुछ हमारे आसपास था।
लेकिन कुछ माह बाद वे गायब हो गई। छोटा पेड़, झाड़ियां और पानी भरे गड्ढा जो कभी गौरेया का खेल मैदान हुआ करता था, की जगह कांक्रीट ने ले ली। शहरीकरण का धन्यवाद! अब वहां सीमेंट कांक्रीट की सड़क है। अब वहां गौरेया की चहचहाहट नहीं है। लगता है कि वे अब हमारे पास फोटो में ही रहेंगी।
हो सकता है कि वह अपने लिए नए घर की तलाश में हो। लेकिन मुझे आसपास ऐसी कोई जगह नहीं दिखाई देती। हमारे आसपास तो अब मोबाइल टॉवर हैं जिनसे होने वाले रेडिएशन को इन नन्हें प्राणियों का ‘हत्यारा’ कहा जाता है। मेरी इच्छा है कि उसे नया घर मिल जाए। भोपाल सहित पूरे देश में सब जगह दिखाई देने वाले इस नन्हे पक्षी को पक्षी विशेषज्ञ सलीम अली ने ‘मेन्स हेंगर आॅन’ कहा था। वे हमारे घर में बेफिक्री से चले आने, बिना रूके चहचहाने और अपना घोंसला बनाने के लिए तिनका-तिनका जुटाती देखी जा सकती थी। कई बार उसे हमारी मौजूदगी से भी काई फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन अब इनकी संख्या लगातार घट रही है। अपने घर के पास जरा घूम कर देखिए, अगर आपको गौरेया दिखलाई दे जाए तो आप भाग्यशाली होंगे। हमारे शहर में यह कई जगह है और कई जगह से गायब हो गई है। अगर आप भाग्यशाली हैं तो उसे बचाने की एक पहल करिए। कुछ शायद नहीं भी करें।
पक्षी केवल मनुष्यों के पास रहते हैं। यह जंगल के खत्म होने का मामला नहीं है बल्कि हमारे बदल जाने की बात है। मोबाइल टॉवर के अलावा हमारे घरों में कांच और लोहे का इतना ज्यादा प्रयोग होने लगा कि पक्षियों के घोंसला बनाने की जगह और दाना पाने की सं•ाावना खत्म होती गई। यहां तक की हमारे घर-आंगन के पौधे भी बदल गए। हमारे पौधे भी अब देशी न रह कर दिखावे वाले हो गए हैं। हमारी बदली जीवन शैली ने घर आने वाली चिड़िया की मूल जरूरतों पर असर डाला है। गौरेया अभी भी प्रदेश के कृषि क्षेत्रों में प्रमुखता से पाई जाती है। हालांकि अन्य पक्षियों की तुलना में शहरों में गौरेया की संख्या में ज्यादा गिरावट आई है। न केवल हमारे घरों में जगह कम हुई बल्कि तालाब, पानी और किचड़ से भरे गड्ढों की जगर भी सीमेंट कांक्रीट ने ले ली। विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर हम अपने अनाज का कुछ हिस्सा इनके लिए रख दे तथा इनके घरोंदे के लिए कुछ जगह छोड़ दे तो चिड़िया पृथ्वी पर सबसे अंत तक रहेंगी। यह हमारे आंगन में देशी पौधे लगा कर एक छोटा उद्यान तैयार कर संभव है। अगर उद्यान न लगा सकें तो एक घोंसला ही बनाया जा सकता है। और इतना करना ज्यादा बड़ी मांग नहीं है।
- अनिल गुलाटी
लेकिन कुछ माह बाद वे गायब हो गई। छोटा पेड़, झाड़ियां और पानी भरे गड्ढा जो कभी गौरेया का खेल मैदान हुआ करता था, की जगह कांक्रीट ने ले ली। शहरीकरण का धन्यवाद! अब वहां सीमेंट कांक्रीट की सड़क है। अब वहां गौरेया की चहचहाहट नहीं है। लगता है कि वे अब हमारे पास फोटो में ही रहेंगी।
हो सकता है कि वह अपने लिए नए घर की तलाश में हो। लेकिन मुझे आसपास ऐसी कोई जगह नहीं दिखाई देती। हमारे आसपास तो अब मोबाइल टॉवर हैं जिनसे होने वाले रेडिएशन को इन नन्हें प्राणियों का ‘हत्यारा’ कहा जाता है। मेरी इच्छा है कि उसे नया घर मिल जाए। भोपाल सहित पूरे देश में सब जगह दिखाई देने वाले इस नन्हे पक्षी को पक्षी विशेषज्ञ सलीम अली ने ‘मेन्स हेंगर आॅन’ कहा था। वे हमारे घर में बेफिक्री से चले आने, बिना रूके चहचहाने और अपना घोंसला बनाने के लिए तिनका-तिनका जुटाती देखी जा सकती थी। कई बार उसे हमारी मौजूदगी से भी काई फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन अब इनकी संख्या लगातार घट रही है। अपने घर के पास जरा घूम कर देखिए, अगर आपको गौरेया दिखलाई दे जाए तो आप भाग्यशाली होंगे। हमारे शहर में यह कई जगह है और कई जगह से गायब हो गई है। अगर आप भाग्यशाली हैं तो उसे बचाने की एक पहल करिए। कुछ शायद नहीं भी करें।
पक्षी केवल मनुष्यों के पास रहते हैं। यह जंगल के खत्म होने का मामला नहीं है बल्कि हमारे बदल जाने की बात है। मोबाइल टॉवर के अलावा हमारे घरों में कांच और लोहे का इतना ज्यादा प्रयोग होने लगा कि पक्षियों के घोंसला बनाने की जगह और दाना पाने की सं•ाावना खत्म होती गई। यहां तक की हमारे घर-आंगन के पौधे भी बदल गए। हमारे पौधे भी अब देशी न रह कर दिखावे वाले हो गए हैं। हमारी बदली जीवन शैली ने घर आने वाली चिड़िया की मूल जरूरतों पर असर डाला है। गौरेया अभी भी प्रदेश के कृषि क्षेत्रों में प्रमुखता से पाई जाती है। हालांकि अन्य पक्षियों की तुलना में शहरों में गौरेया की संख्या में ज्यादा गिरावट आई है। न केवल हमारे घरों में जगह कम हुई बल्कि तालाब, पानी और किचड़ से भरे गड्ढों की जगर भी सीमेंट कांक्रीट ने ले ली। विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर हम अपने अनाज का कुछ हिस्सा इनके लिए रख दे तथा इनके घरोंदे के लिए कुछ जगह छोड़ दे तो चिड़िया पृथ्वी पर सबसे अंत तक रहेंगी। यह हमारे आंगन में देशी पौधे लगा कर एक छोटा उद्यान तैयार कर संभव है। अगर उद्यान न लगा सकें तो एक घोंसला ही बनाया जा सकता है। और इतना करना ज्यादा बड़ी मांग नहीं है।
- अनिल गुलाटी
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